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Monday, August 11, 2025

नेक इरादे, सपनों का फलक, सच का परचम और द ट्रिब्यून स्कूल

केवल तिवारी

इरादे नेक हों तो सपने भी साकार होते हैं

गर सच्ची लगन हो तो रास्ते आसां होते हैं।


पिछले दिनों द ट्रिब्यून स्कूल के विशेष कार्यक्रम में कई साल पहले दोहराई गयी इन पंक्तियों की याद आई। असल में चार दिनों का कार्यक्रम था और एक दिन हमें यानी (10th class के स्टूडेंट धवल के पैरेंट्स) को भी बुलाया गया था। धवल ने ओलंपियाड में दो विषयों में मेडल जीते थे। साथ ही सुखद संयोग है कि उसके मामा के बेटे भव्य को भी बेहतरीन शैक्षणिक प्रदर्शन करने के लिए दो पुरस्कारों से नवाजा गया। इनमें एक आल राउंडर का भी शामिल रहा। ट्रिब्यून स्कूल से ही मेरा बड़ा बेटा कार्तिक पढ़ा है। इस नाते इस स्कूल करीब डेढ़ दशक पुराना नाता हो गया है। 

प्रिंसिपल रानी पोद्दार मैडम का उत्साहजनक अंदाज और चांद नेहरू मैडम की बात






इस बार मुझे जो हटके लगा वह था प्रिंसिपल रानी पोद्दार मैडम का अलग अंदाज। एक तो वह हर बच्चे के साथ उसके अभिभावकों को भी सामने बुला रही थीं। उनका कहना था कि पैरेंट्स अपने लिए, अपने बच्चों के लिए भी तालियां बजाएं। एक-एक बच्चे और उनके पैरेंट्स पर स्पेशल अटेंशन दे रही थीं। साथ थीं स्कूल की चेयरपर्सन चांद नेहरू मैडम भी थीं। मेरा सौभाग्य है कि अनेक अवसरों पर चांद नेहरू मैडम से बातचीत का मौका मिलता है और कई बार उन्होंने टिप्स दिए जो मेरे काम आए। उनकी एक पुरानी बात याद आई जिसके तहत उन्होंने कहा था बच्चों के लिए लालवत (लाड़वत), दंडवत और मित्रवत। मैंने धवल के साथ पुरस्कार लेते वक्त इसका हलका सा जिक्र किया तो बाद में प्रिंसिपल रानी मैडम ने इसे दोहराने के लिए कहा। मैंने शुरू की दो बातें बताईं कि पहले बच्चों को बहुत स्नेह, फिर उन्हें थोड़ा डर दिखाना या दंड देना भी जरूरी होता है… बाद में चांद मैडम ने स्पष्ट किया और इसमें जुड़े एक अन्य सूत्र मित्रवत को भी बताया, यानी 15 वर्ष के बाद बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार जरूरी है। मुझे जब अपनी बात रखने का मौका मिला तो मैंने बताया कि किस तरह रानी पोद्दार मैडम ने बच्चे को आईसर भोपाल जाने का मौका दिया और हमें आने-जाने के टिकट के पैसे भी दिलवाये। साथ ही उनका यह अंदाज कि बच्चे ही स्टेज संभालेंगे, बच्चों को पैरेंट्स ज्यादा बोलेंगे और पुरस्कार लेने साथ आएंगे। मुझे याद आया पिछले साल का समय जब धवल के अनेक पुरस्कार मिले और आदरणीय बोनी सोढ़ी मैडम के मंच पर मौजूदगी में ये पुरस्कार मिल रहे थे। धवल को किसी अन्य स्कूल में किसी प्रतियोगिता के लिए भेजा गया था। प्रिंसिपल मैडम ने कहा कि धवल के फादर को स्टेज पर बुलाइये। बाद में धवल एक अन्य पुरस्कार को लेने पहुंच ही गया। बहुत-बहुत धन्यवाद मैडम। अनेक कथित बड़े स्कूलों से द ट्रिब्यून स्कूल में अपने बच्चों को शिफ्ट कराने वाले पैरेंट्स ने साफ कहा कि उन्हें यहां टीचर्स से कितना सपोट मिलता है, उसे बयां नहीं कर सकते। एक महिला तो बेहद भावुक हो गयीं। सच में यहां का संपूर्ण स्टाफ चाहे म्यूजिक सेक्शन हो या फिर स्पोर्ट्स। साथ ही हर विषय के टीचर्स व्यक्तिगत अटेंशन देते हैं, अभिभावकों की सुनते हैं और उन्हें जरूरी टिप्स देते हैं। सभी टीचर्स को धन्यवाद। उनके लिए कबीर के दो दोहे समर्पित-

गुरु कुम्हार शिश कुंभ है, गढ़-गढ़ काढ़े खोट। अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहे चोट।

सब धरती कागद करूं, लेखनि सब बनराय, सात समुंद की मसि करूं गुरु गुन लिखा न जाये।

कुछ बातें जो मैं अक्सर कहता हूं

मेरा यह सौभाग्य है कि अतीत में अनेक जगह मुझे मोटिवेशनल बातचीत के लिए बुलाया गया। मैं कुछ बातें अक्सर कहता हूं, उन्हें भी यहां दोहरा रहा हूं। एक तो बच्चों के लिए यह कि भावनाओं को हमेशा बनाए रखो यानी इमोशन बहुत जरूरी हैं। अगर कभी आपके अभिभावक, खासतौर पर मां उदास हैं, क्या आपने उनका चेहरा पढ़ा। यदि आपको यह पता ही न चले कि मां उदास या खुश हो तो समझिए आपमें भावनाओं की कमी है जो अच्छी बात नहीं है। साथ ही गलतियों के सिर्फ दो ही कारण होते हैं- एक या तो आपको जानकारी नहीं और दूसरा आप लापरवाह हैं। इसके साथ ही अभिभावक भी स्कूल या अन्य कई जगह सुनी गयी बातों को पहले से जानते हैं बस उस पर अमल करते वक्त सब भूल जाते हैं। जितना भी अच्छा सुनकर जाएं उसमें से कुछ बातों को भी फॉलो कर लें तो बात बनेगी। ब्लॉग लिखने और ट्रिब्यून स्कूल से संबंधित अन्य बातों का यह सिलसिला यूं ही चलता रहेगा। पुरस्कृत बच्चों और उनके अभिभावकों को हार्दिक शुभकामनाएं। साथ ही जो पुरस्कृत नहीं हुए वे अगली बार जरूर ऐसी सूची में स्थान पाएंगे, बस जरूरत है चलते रहने की। ध्यान रखो बच्चो, ‘पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्त गतं धनं, कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम’ अर्थात पुस्तक में लिखी विद्या और दूसरे को दिया हुआ धन, यदि समय पर काम न आए तो बेकार है। जय हिंद




Saturday, August 9, 2025

जीवन पथ का मंचन

साभार : दैनिक ट्रिब्यून। अनेक पुस्तकें मुझे समीक्षार्थ मिलती हैं। उनमें से कुछ दिल‌ को छू जाती हैं। उनमें से एक यह भी है। कबिरा सोई पीर है। प्रतिभा कटियार जी को हार्दिक शुभकामनाएं। 


केवल तिवारी

जीवन रूपी रंगमंच में न जाने कितने किरदारों का हमें सामना करना पड़ता है। हम खुद भी तो अनेक तरह का नाटक करते हैं। लेकिन जब अच्छा होने का दंभ भरने वाला भी 'नाटकबाज' निकले और सचमुच एक अच्छे इंसान को ग़लत साबित करने में दुनिया लग जाए तो क्या हो? उपन्यास 'कबिरा सोई पीर है' में ऐसे ही ताने-बाने की बुनावट है। लेखिका हैं प्रतिभा कटियार। अलग-अलग शीर्षक से कहानीनुमा अंदाज में लिखा गया यह उपन्यास एक नया प्रयोग है। हर कहानी का पूर्व और बाद की कहानी से संबंध है। हर कहानी के बाद उसके कथानक से मेल खाती एक शायरी, किसी मशहूर शायर की। उपन्यास में दर्ज कहानी की नायिका तृप्ति की धीर-गंभीरता काबिल ए गौर है, लेकिन आखिरकार वह भी तो इंसान ही है। ऐसी लड़की जिसे कदम-कदम पर दंश मिलता है, सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक। शायद इसीलिए वह ज्यादा सोचने लगी है। उधर, अनुभव बहुत कोशिश करता तो है ‘हीरो’ बनने की, लेकिन इस 'खतरनाक' समाज में कहां संभव है यह सब। सीमा तो जैसे आदर्श लगती है। लेकिन उसके साथ रिश्ते में भाई लगने वाले ने क्या किया। सही रिपोर्ट तो होती हैं क्राइम ब्यूरो की जिनका लब्बोलुआब होता है ‘किस पर करें यकीन।’ चलचित्र की तरह आगे बढती कहानी पाठक को बांधे रखती है। पाठक की कल्पनाओं के घोड़े दौड़ते हैं, लेकिन कहानी की जिज्ञासा तब और बढ़ जाती है जब उसकी धारा दूसरी दिशा में बह निकलती है। यह ताकीद करते हुए कि ‘अब कहां होता है ऐसा’, मत बोलिए। सिर्फ कहना आसान है कि ‘अब तो सब ठीक है।’ कहानी के पात्रों से यह भी तो साफ होता है कि हर कोई एक जैसा नहीं होता। गंगा की लहरों, रात की रानी की सुगंध और फूल-पंछियों का मानवीकरण गजब अंदाज में किया गया है। एक बेहतरीन लेखक की यही पहचान है कि उसका पाठक रचना को पढ़ने पर भी तृप्त न हो। इस उपन्यास की कहानी भी खत्म होते-होते पाठक कुछ ढूंढता है। सुखांत ढूंढने की हमारी फितरत, यहां भी कुछ समझ नहीं आता, सिवा इसके कि तृप्ति फिर उठ खड़ी होगी और इस उपन्यास का दूसरा भाग भी आएगा। लेखिका ने कहानी को बहुत बढ़िया तरीके से बुना है। आम बोलचाल की शैली, उपन्यास से पाठकों को जोड़े रखती है।

पुस्तक : कबिरा सोई पीर है, लेखिका : प्रतिभा कटियार, प्रकाशक : लोकभारती पेपरबैक, प्रयागराज। पृष्ठ : 168, मूल्य : 299 रुपये

सरल व्यक्तित्व का सहज चित्रण

 साभार : दैनिक ट्रिब्यून पिछले दिनों छपी एक पुस्तक की मेरे द्वारा की गई समीक्षा। सुखद संयोग है कि जिन पर पुस्तक लिखी गई यानी डॉ. चंद्र त्रिखा को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, उनको सुनता हूं और पढ़ता हूं। उनकी सुपुत्री डॉ. मीनाक्षी वाशिष्ठ हमारे यहां समाचार संपादक हैं। सादर



केवल तिवारी

एक शख्सियत, डॉ. चंद्र त्रिखा। इनसे जब पहली बार मिलेंगे तो मन से आवाज आएगी, ‘हां मैं इन्हें जानता तो हूं।’ जब जानने लगेंगे तो रोचकता बढ़ती जाएगी। फिर उसी मन से आवाज आएगी, ‘इनके बारे में तो मैं बहुत कम जानता हूं।’ ऐसा ही व्यक्तित्व है डॉ. चंद्र त्रिखा का। उनकी रचनाशीलता, उनके जीवन सफर और उनके विचारों से संबंधित एक पुस्तक हाल ही में उनके 80वें जन्मदिन पर प्रकाशित हुई है। नाम है, सृजन के शिखर चंद्र त्रिखा : वंदन अभिनंदन।' इस पुस्तक में अलग-अलग क्षेत्र की हस्तियों ने संस्मरणात्मक शैली में अपने अनुभव साझा किए हैं। इनका संयोजन वरिष्ठ साहित्यकार एवं केंद्रीय साहित्य अकादमी के अध्यक्ष माधव कौशिक की देखरेख में पूर्व आईएएस अधिकारी एवं कवयित्री डॉ. सुमेधा कटारिया ने किया है। शब्दों, पृष्ठों की सीमा का बंधन होने पर भी लेखकों ने गागर में सागर भर दिया है। डॉ. त्रिखा बच्चों के लिए वैसे ही दादू-नानू हैं, जैसा होते हैं। साथी रचनाकारों के लिए हैं जिंदादिल व्यक्ति। औरों को गंभीरता से सुनने वाले, अच्छा लिखने वालों से खुद मुलाकात की इच्छा रखने वाले। कोई उन्हें संत बताता है तो कोई पिता तुल्य। साहित्यकार माधव कौशिक ने बहुत संक्षेप, लेकिन पर्याप्त जानकारी में उनके जीवन सफर पर प्रकाश डाला है। समापन वह डॉ. त्रिखा की ही एक कविता की पंक्ति से करते हैं, 'संभावनाओं की पतवारें चलाते रहो साथियो।' डॉ. त्रिखा की सकारात्मक सोच का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ज्यादातर लेखकों ने उनकी उस कविता का जिक्र किया है, जिसकी दो पंक्तियां इस तरह से हैं, 'अच्छी खबरें दिया करो, सहज जिंदगी जिया करो।' पुस्तक में दर्ज संस्मरणों को पढ़ते-पढ़ते जहां डॉक्टर साहब की रचनाशीलता के दिव्य दर्शन होते हैं, वहीं विविध लेखकों का अंदाज ए  बयां रोचकता बढ़ाता है। कोई उनके द्वारा विभाजन विभीषिका पर उठाई गई कलम का कायल है तो किसी को सूफी संतों पर उनके अध्ययन पर नाज है। लेखकों, अधिकारियों के संस्मरणों से इतर परिजनों के नजर में वह एक 'बेहतरीन इंसान' हैं। इस बेहतरीन इंसान को किसी ने देवदूत बताया तो किसी ने अपना हीरो। कोई उन्हें सद्गुणों की प्रतिमूर्ति कहता है तो कोई जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा। किसी के लिए वह साया हैं और किसी के लिए संपूर्ण व्यक्तित्व और संस्थान। किसी को उनकी छांव सुरक्षा देती है और किसी के लिए वह प्रेम की विरासत हैं। वह प्रेरणा स्तंभ भी हैं, आदर्श व्यक्तित्व भी। कोई उन्हें परिवार की ताकत बताता है और किसी को वह जिंदगी का खूबसूरत हिस्सा लगते हैं। दूसरी-तीसरी पीढ़ी को भी डॉ. त्रिखा दोस्त सरीखे लगते हैं। पत्नी के लिए तो वह जीवन साथी हैं ही, सबसे बड़ी संपत्ति। पुस्तक में ज्यादातर लेखकों ने संस्मरण उसी सहज भाव से लिखे हैं, जैसे खुद डॉ. त्रिखा हैं। जानी-मानी हस्तियों के शुभकामना संदेश से लेकर छोटी-बड़ी हर अभिव्यक्ति पठनीय है। विभाजन के दौर से लेकर आज के डिजिटल जमाने तक में हर दृष्टि से दखल रखने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. त्रिखा को समर्पित इस पुस्तक में लेखन भी विविध आयामों वाला है। बीच में अनेक चित्र रोचकता बढ़ाते हैं। चित्रों में शायर बशीर बद्र के साथ डॉ. त्रिखा हों या फिर पारिवारिक समारोह में, उनके सहज मानवीय सरोकार के दर्शन होते हैं। पुस्तक संग्रहणीय है।

पुस्तक : सृजन के शिखर चंद्र त्रिखा : वंदन अभिनंदन 

संकलनकर्ता: डॉ. सुमेधा कटारिया 

प्रकाशक : निर्मल पब्लिशिंग हाउस, कुरुक्षेत्र 

पृष्ठ : 344, मूल्य : 600 रुपए

Sunday, August 3, 2025

तुझको चलना होगा, कुक्कू, मैं और बैंगलोर यानी बेंगलुरू

 केवल तिवारी 

सफर होते हैं, हम सफर होते हैं और होती है जिंदगानी। 

नित अच्छी सोच से करें शुरू तो रब की होती है मेहरबानी



इस ब्लॉग को अभी में एयर इंडिया की फ्लाइट से लिख रहा हूं। करीब 36 हजार फुट ऊंचाई से। सफर है जो चल रहा है। बड़े सुपुत्र श्री कार्तिक यानी प्रिय कुक्कू के नये सफर की शुरुआत का हमसफर बनकर बेंगलुरु गया था। सोमवार 4 अगस्त, 2025 से उसकी Microsoft में job वाली जिंदगानी की शुरुआत है। मेरा मन था उसके साथ आने का। हम लोग Thursday रात करीब 11 बजे उसके फ्लैट पर पहुंचे। 15th floor पर। उसके दो दोस्त आदित्य और नविकेत हमारा इंतजार कर रहे थे। बहुत प्यारे बच्चे हैं दोनों। बाद में आते वक्त तो एक और कार्तिक एवं पंकज से मुलाकात हुई। बहुत अच्छा लगा। मैंने पहले bye बच्चो कह, फिर खुद ही मैं बोल पड़ा कि अब बच्चो नहीं, बड़ो। खैर, ये तो मज़ाक की बात थी। हमारे लिए ये सब बच्चे हैं। सबको आशीर्वाद और शुभकामनाएं। चलिए फिर चलते हैं सफर पर। क्योंकि चलना ही पड़ेगा उस गीत की मानिंद, जिसके बोल हैं, तुझको चलना होगा... तू न चलेगा तो...

बृहस्पतिवार को जिस शाम हमारी फ्लाइट थी, बहुत भागदौड़ रही। पहली रात प्रेस क्लब गया था अपने office के नये साथी अनिल की पार्टी में। बारिश बहुत हो रही थी इसलिए बाइक वहीं छोड़कर आनी पड़ी, इधर छोटे बेटे धवल के स्कूल से message था Aadhar update mendetry का। उसकी 12 बजे छुट्टी होनी थी। मैं प्रेस क्लब गया, वहां से फिर बाइक उठाई, e sampark गया। पता चला update हो रहा है। फिर घर आकर बची-खुची पैकिंग की। फिर तैयार होकर धवल का इंतजार करने लगा। वह आया 12:45 बजे। उससे हम यानी मैं और पत्नी भावना थोड़ा जोर से बोल गये, इतने आराम से क्यों आ रहा है। कुक्कू को भी लग रहा था, update हो जाता तो अच्छा था। धवल ने बताया कि स्कूल में assembly थी और उसको perform करना था। मैंने उसे टी-शर्ट बदलने को कहा और हम भागे Aadhar update centre. वहां देखा, बहुत लंबी लाइन। मैं लाइन‌ में खड़ा हो गया, धवल को बिठा दिया। करीब दो बजे लंच हो गया। इस बीच धवल बेचारा बार बार मेरे पास आकर बोलता, पापा आप बैठ जाओ। Lunch break 2:30 पर खत्म हुआ। मैंने पीछे खड़े अपने office के ही एक सज्जन से कहा, मेरी flight है आप इसे देख लेना। साथ ही धवल को घर पहुंचने का रास्ता बताया और कुछ पैसे दे दिए। फिर मन नहीं माना। घर wife को फोन किया कि तैयार रहना, मैं तुम्हें यहां छोड़ दूंगा। मैं और कुक्कू airport चले जाएंगे। मैं घर गया। इस समय धवल ने भावुक कर दिया, बोला, पापा भैया को bye कह देना। खैर शाम तक मैंने और कुक्कू ने फ्लाइट पकड़ ली और सूचना मिली कि धवल का आधार अपडेट हो गया है। चलते रहेंगे तो काम बनेंगे। मैंने कुक्कू से कहा कि याद है तुम्हें अपने आधार कार्ड बनाने का किस्सा। वह हंस दिया। असल में जब वह 6th class में था तो एक दोपहर स्कूल से आते ही बोला, पापा आज ही आधार कार्ड बनवाना है। मैंने कहा, तुरंत नहीं बनता है। वह बोला, कार्ड apply कर reciept देनी है। बाहर बारिश हो रही थी। कार मेरे पास थी नहीं online cab booking का तब चलन नहीं था। कुक्कू की स्कूल टाइम की आदत थी कि जो काम बोला है, वह होना ही होना है। अनेक बार तो वह पहले home work पूरा करता था फिर खाना खाता था। इसके की प्रोजेक्ट के लिए हम दोनों पति-पत्नी खूब भटके हैं। खैर उस दिन भी तय किया कि तुम छाता पकड़ कर पीछे बैठना मैं धीरे-धीरे बाइक चलाऊंगा। जैसे ही बाहर निकले, देखा बाइक पंचर है। अब क्या करें। फिर वही बात, तुझको चलना होगा... कीचड़ भरे रास्ते थे। बाहर सड़क तक आते। शेयरिंग वाला auto लिया। वहां उतरते ही देखा सड़क पानी से लबालब। किसी तरह e sampark पहुंचे। वहां मौसम के कारण भीड़ बिल्कुल नहीं थी। Operator madam से Aadhar apply की request की। पहले उन्होंने मना कर दिया। उनका कहना था कि बच्चा भीगा हुआ है, document भी गीले हैं। Biometric code हो नहीं पाएगा। मैंने फिर अनुरोध किया और वहां तक आने की कहानी बताई। उनका दिल पसीज गया। बोलीं, मैं अप्लाई कर देती हूं। Rejection भी हो सकता है। मैंने कहा प्लीज़ कर दीजिए। करीब 20 मिनट में apply हो गया। तब तक इंद्र देवता भी शांत हो चुके थे। कृपा रही कि एक हफ्ते में card बनकर आ गया। दोनों बच्चों की आदत अच्छी है कि मां-बाप को परेशान देख sorry जरूर बोलते हैं। हम लोग घर पहुंचे। मैंने एक कप चाय पी और office भागा। क्योंकि तुझको चलना होगा... बाद में कुक्कू का आधार तब अपडेट कराया जब jee mains में examination centre में चेतावनी दी गई। कुछ करने निकलिए तो काम हो ही जाता है। मुझे वरिष्ठ पत्रकार, कवि एवं हिंदुस्तान अख़बार के associate editor और कादंबनी के संपादक रहे विजय किशोर मानव‌ जी की एक बात याद आती है। एक बार उन्होंने किसी बात पर कहा था कि जब ये लगे कि यह काम नहीं हो सकता तो एक कोशिश जरूर करो, यानी एक कदम जरूर बढ़ाओ। तुम्हें पता है कि जीरो तो पहले से है। इसमें और कम क्या होगा, क्या पता कोशिश करने पर काम हो ही जाए। कार्तिक शुरू से काम पूरा करने के प्रति सजग था, उतना ही कूल भी। अब तो हमें समझाता है कि परेशान क्यों होते हो।

बेंगलुरु का सफर 

हम लोग रात 11 बजे फ्लैट पर पहुंचे। भूख लग रही थी। कुक्कू ने online कुछ मंगवा लिया। करीब 12 बजे तक उसके दोस्तों से बातचीत हुई। सबसे पहले आदित्य ने door finger print verifi करवाया फिर WiFi का password share हुआ। ठीक-ठाक बातचीत के बाद हम दोनों बाप-बेटे सो गए। ऐसी नींद आई कि रात एक बजे आकर उसके landlord namo kaul जी को सामान ले जाना था, वह कब ले गए पता ही नहीं चला। सुबह मेरी नींद हमेशा की तरह 6 बजे खुल गई। पानी पिया। थोड़ा योग फिर कुक्कू के कुछ सामान को set किया। बाद में कुक्कू के साथ बाहर गया। कुछ सामान लेकर आए। बच्चे की छोटी सी गृहस्थी की शुरुआत। वही, तुझको चलना होगा... इस बीच, मैं मित्र महेंद्र मेहता की call का इंतजार करने लगा। शाम तक फोन नहीं आया तो मैंने बेंगलुरु घूमने की इच्छा जाहिर की। मुझे कुक्कू के office देखने का मन था। साथ ही यहां बातचीत और खान-पान को परखना। कुक्कू के मन को भांपकर मैं अकेले ही निकल पड़ा। एक जगह नारियल पानी पिया। फिर एक बाइक राइडर से बात की। Office पास में था। 30 रुपए में पहुंच गया। वहां की कुछ वीडियो ब्लॉग के अंत में साझ करूंगा। 

त्रिभाषा फार्मूला तो चल रहा है 

जो भाषाई विवाद इन दिनों सुर्खियों में है, मुझे बेवजह और सियासी ही लगा। शुक्रवार शाम मैंने करीब 20 लोगों से बात की। एक बात तो साफ दिखी कि अगर मामला आर्थिक है तो टूटी-फूटी ही सही, हिंदी बोलेंगे। दुकानदार हों या घरेलू सहायक। इसके अलावा केंद्रीय office, शिक्षण संस्थान, बैंक में पहले स्थानीय भाषा यानी कन्नड़ में लिखा मिलेगा, फिर हिंदी या अंग्रेजी में। एक बार यहां हिंदी पोस्टरों को हटाने की मुहिम चली। अब अनेक जगह roman में हिंदी पोस्टर लगे हैं। जैसे chhote bhai ki dukan. Brindavan wali mithai. Krishna kuteer. Hum per karein bharosa. Aapke pasand ka dhaba. एक जगह हिंदी विषय को लिखा था Hindi. भाषाई विवाद में सियासत ज्यादा है। सभी लोग खासतौर से युवा अधिक से अधिक भाषा सीखना चाहते हैं। अगर नहीं आती है तो हिंदी संपर्क भाषा बनती है। मुझे उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के दो-तीन लोग मिले जो कन्नड़ फर्राटेदार बोलते हैं। हमारी भतीजी यानी विनोद दा की बेटी विधि भी तो। हिंदी, अंग्रेजी और कन्नड़। साथ ही हमारी कुमाऊनी बोली भी समझती है। 

एक शाम विनोद दा परिवार के साथ 

मित्र महेंद्र मेहता जी से शुक्रवार देर शाम बात हो पाई। मुलाकात अगली बार। शनिवार शाम तय कार्यक्रम के मुताबिक मैं और कुक्कू विनोद दा के यहां गए। कुक्कू के अनेक मित्र उसके फ्लैट पर आये थे, इसलिए वह दो-तीन घंटे बैठकर चला गया। हमारी गपशप चली। भाभी जी ने कई तरह के व्यंजन बनाए। विधि से बातचीत कर अच्छा लगा। छुटकी तो भगवान की तरह है, जिसकी पूजा यह परिवार कर रहा है। रविवार सुबह इडली और पोडम का नाश्ता किया। चाय पी दो बार। फिर विनोद दा मुझे पहुंचा गये। ब्लॉग लिखते लिखते चंडीगढ़ लैंड होने की घोषणा हो चुकी है। यादगार रहा सफर। करीब पौने चार होने वाले हैं। चलना होगा, तुझको चलना होगा... लिखने को बहुत कुछ है, बाकी अगले अंक में 









Saturday, July 5, 2025

देवशयनी एकादशी, चातुर्मास यानी संयम का पर्व



केवल तिवारी

शनिवार 5 जुलाई को घर में देवशयनी एकादशी की बात चल रही थी। तुलसी के पौधे रोपने की प्रक्रिया। व्रत रखने की बात। एक दिन बाद है पर्व। कुछ शुरुआत, कुछ तैयारी चाहिए। व्रत और अध्यात्म का अटूट रिश्ता। मान्यता है कि देवशयनी एकादशी से चातुर्मास की शुरुआत होती है। ऐसी शुरुआत जो आध्यात्मिक साधना का संकेत देती है। भगवान विष्णु के ब्रह्मांडीय निद्रा में चले जाने की मान्यता। इस मौके पर भक्त उपवास रखते हैं। उपवास का मतलब भी आत्मनिरीक्षण से है। अर्थात प्रार्थना करें 'सर्वे भवंतु सुखिन:।' अनुशासन। आत्मानुशासन। हम क्या हैं? कैसे रहना चाहिए? ऐसा किसलिए हो गये? उसी तरह जैसे शक्तिपीठों में जाकर जय माता की कहते हैं। मन में ध्यान रहे कि हमारी अपनी माता की क्या स्थिति है। जीवित हैं तो सबसे बड़ी शक्तिपीठ आपके घर में है। माता नहीं है तो उनकी स्मृतियां हैं। इस आध्यात्मिक पर्व के दौर में ही मोहर्रम की बात हो रही है। मोहर्रम कुर्बानी की याद दिलाता है। संदेश न्याय, मानवता, धैर्य और अत्याचार के खिलाफ मजबूती से खड़े होने का है। धैर्य, मानवता और परोपकार आपको हर त्योहार, प्रतीक और संदेशों में मिलेगा। आत्मानुशासन और धैर्य के आगे बाकी सब बौने हैं। धैर्य और आत्मसीख भी आपको बहुत कुछ बताती है। किसी भी मौके पर आप कुछ सीख सकते हैँ। यह सीख आपके मित्रों, परिजनों और यहां तक अपने जीवनसाथी या बच्चों से भी मिल सकती है। एक सीख यह जरूरी है कि आपने खुद को संयमित रखना है। यहां 'अपने तो अपने होते हैं' के भाव महत्वपूर्ण होते हैं। शुरुआत अपनों से होनी चाहिए। आप फिर आपसे जुड़े लोग। सीख से आत्मालोकन करें, उसका बखान बहुत न करें। कार्यस्थल हो या फिर कोई और जगह, आपकी सीख आपको बहुत कुछ बताती है। कभी आपको मौन रहने की सीख मिलती है, कभी तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देने की। कभी कुतर्क के आगे चुप हो जाने की और कभी अपने ही कहे शब्दों पर मंथन की। हो सकता है आपके अपने शब्द ही कुछ अटपटे रहे हों। इस चातुर्मास में इस तरह का ही आत्मालोकन करें। खानपान और वाणी में संयम रखें। कुछ सीखें। सीखने की प्रक्रिया को खत्म न करें और कभी दुखी महसूस करें तो याद रखें, सब दिन होत न एक समाना। चातुर्मास यानी संयम। वाणी, कर्म पर। जय हो

Monday, June 30, 2025

प्राकृतिक नजारे और मसूरी यात्रा, अवनीश की बात और फुल बरसात, कसाना क्लब और हम सब

केवल तिवारी



कहीं तो चलते हैं। यह चर्चा घर में थी। कुछ उहापोह, कुछ उलझन। बेटा कार्तिक बोला, उत्तराखंड में खूबसूरत जगह है ‘वैली ऑफ फ्लावर्स’ यानी फूलों की घाटी। आसपास क्या है? सवाल के जवाब में उसने बताया कि बद्रीनाथ जा सकते हैं और हेमकुंट साहिब। बात थोड़ी जंची। बद्रीनाथ धाम और हेमकुंट साहिब जाने की लंबे समय से प्रबल इच्छा थी। साथ में मन में आशंका थी कि बरसात का मौसम है। फिर माताजी के कथन याद आये कि यदि कहीं जाना हो तो या जाने का कार्यक्रम बनाओ तो अगर-मगर मत करना। हां, ना तो भगवान भरोसे है, अपनी तैयारी करते रहना। छोटा बेटा धवल बोला, कोचिंग का क्या होगा, ऐसी ही शंका पत्नी के मन में भी थी। चूंकि छुट्टी का महीना ही यही था और इसी महीने जाने का कार्यक्रम बन सकता था। सारी बातें सोचकर हमने तैयार कर ली। कार्तिक ने एक ट्रेवल एजेंसी से संपर्क किया। वहां से हमारा पूरा प्लान बनकर आ गया। कुछ एडवांस मिल गया। कोचिंग में छुट्टी की अप्लीकेशन दे दी गयी। गमलों में पानी डालने के लिए पड़ोसी सुक्खू परिवार से कह दिया गया। जाने के एक दिन पहले पता चला कि जहां-जहां हमारे जाने का कार्यक्रम है, वहां मौसम बेहद खराब है। अब क्या करें? रहने देते हैं। फिर देहरादून में अवनीश से बात की। अवनीश वरिष्ठ पत्रकार हैं। मेरा छोटा भाई जैसा। उसने सलाह दी कि आप मसूरी घूम लीजिए। तीन दिन पर्याप्त हैं, वहां घूमने के लिए। रहेंगे कहां के सवाल पर बोले, महिंद्रा क्लब के पास कसाना क्लब है। क्लब के आजाद कसाना मेरे जानकार हैं। फोन पर उनको लेते हुए उनसे सीधे बात करा दी। कार्यक्रम बना कि मसूरी तक अपने ही वाहन से चला जाये, आगे के सफर के बारे में वहीं सोचेंगे। … और हम चल दिए अपने सफर पर।
हर सफर की है एक कहानी, अक्सर अपनी सी लगे जो जगह हो अंजानी।
जिंदगी एक सफर है, हर मोड़ पर मिलेंगे कितने हमसफर
तू चलत रहेगा तो सफर बढ़ेगा, तू चलने की हिम्मत तो कर।
मंगलवार, 24 जून की सुबह हम लोग चल पड़े अपने सफर पर। मैं बहुत पहले यहां गया था। उस वक्त अविवाहित था। मित्र धीरज और राजेश के साथ वहां जाना हुआ था। तब हम लोग देहरादून तक ट्रेन से गए थे। वह सफर बहुत ही ‘खतरनाक’ जैसा था। कांवड़ियों का सीजन था। जनरल टिकट लिया और कैसे गए, उसका विवरण ही बहुत अजीब होगा। दोपहर होते-होते हम लोग पहुंच गए मसूरी।







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कुदरत के नजारे और पुरानी यादें…
पहले दिन हम लोग सिर्फ मॉल रोड पर घूमे। बेइंतहा भीड़। यह अलग बात है कि चारों ओर प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा था। कोहरा छाया हुआ था। बीच-बीच में बूंदाबांदी हो जाती। बच्चे इन नजारों को कैमरे में कैद करने लगे। हालांकि यह नजारा मेरे लिए कोई अनोखा नहीं था। पांचवी तक मैं भी उत्तराखंड स्थित अपने गांव रानीखेत के पास डढूली में रहा हूं। उसके बाद अक्सर गांव जाता रहा हूं और जून के महीने में तो अक्सर ही गांव रहता था। तब ऐसे नजारे आम होते थे। लेकिन बच्चों को आनंद आ रहा था। अगले दिन हम लोग पहले गए सैंजी गांव। इस गांव को कॉर्न विलेज भी कहते हैं। पूरे गांव में सिर्फ भुट्टे की खेती। गजब शांत इलाका। यहां बच्चों को ज्यादा अच्छा नहीं लगा, लेकिन यह जगह मेरे दिल को भा गयी। घरों के बाहर भुट्टे लटके हैं। गौरैया दिख रही है। लोगों से बात करो तो बड़े अच्छे ढंग से बात कर रहे हैं। यूं तो अन्य जगह पानी भी कोई न पूछे। महंगाई के तो क्या कहने। हम कैब में गये थे। कैब चालक तिरपन सिंह बेहद सज्जन व्यक्ति और हर जगह के बारे में तसल्ली से बताते। वह खाने के लिए भी एक बढ़िया जगह ले गये। मैंने कहा, आप भी खा लेना, संकोच मत करना। वह बोले, सर आप मेरा बिल मत देना, हमें फ्री में मिलता है। पहले मुझे लगा शायद ज्यादा रेट लगाएंगे, लेकिन अन्य जगह के मुकाबले वहां बहुत सामान्य रेट पर खानपान हो गया। सैंजी गांव के बाद हम लोग आए कैंपटी फॉल। यहां करीब तीस साल पहले दो मित्रों संग आया था और ‘घनघोर ठंडी…’ शब्द लिखा यहीं देखा था। कैंपटी फॉल के बाद कंपनी गार्डन जो अब अटल उद्यान बन गया है, वहां घूमे। फिर दलाई हिल, बुद्धा टैंपल आदि। नजारे सब जगह एक जैसे, बस किलमौड़ (एक जंगली फल जिसे बचपन में खूब खाते थे) खाने को मिला बहुत समय बाद। यह फल हिमाचल में भी होता है।
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कसाना क्लब, आजाद वादियां और मर्यादित आचरण








अवनीश की सलाह पर हम लोग कसाना क्लब गये। मसूरी मॉल रोड से करीब एक किलोमीटर ऊपर। मैं मॉल रोड से कुछ ऊपर तक तो कार ले गया, लेकिन जब बहुत ही संकरी गलियों में घुमावदार खड़ी चढ़ाई दिखी तो मैंने कसाना जी को ही फोन लगा दिया। क्लब ऑनर आजादा कसाना खुद ही आ गए और हमारी कार चलाकर ले गये। आजाद जी से हर दिन (हम लोग क्लब में तीन दिन रुके) कुछ न कुछ मुद्दे पर बात होती। खूबसूरत वादियों में बसा कसाना क्लब से चारों ओर विहंगम नजारा दिखता है। एक गीत के उस पंक्ति की मानिंद जिसके बोल हैं, ‘धड़कते हैं दिल कितने आजादियों से, बहुत मिलते-जुलते हैं इन वादियों से…’ बेशक यहां की आजाद वादियों में आप खो जाएंगे, लेकिन कसाना जी और उनके स्टाफ का आचरण बहुत मर्यादित रहता है। बात चाहे रसोईघर संभाल रहे मोहनदा की हो या फिर मनदीप की। आजाद कसाना के साथ निजी जीवन से लेकर योग, धर्म, संस्कृति पर विस्तार से बात हुई। उनका व्यवहार, आचरण और आतिथ्य भाव बहुत अच्छा रहा। उन्होंने ही हमारे लिए कैब वाले से बात की और शायद उनके तालमेल का ही असर था कि कैब से घूमना और फिर अगले दिन पैदल ही घूमने की सलाह देना हमारे काम आया। कसाना जी से फिर मिलने का वादा कर हम लौट आए। अब कुछ दिन मसूरी यात्रा की बातों में ही हम लोग खोए रहेंगे। इस यात्रा के बाद अपने संस्थान दैनिक ट्रिब्यून के लिए एक रील बनाई। उसका लिंक और संबंधित फोटो साझा कर रहा हूं।
https://youtube.com/shorts/yaPHFKPgeHg?feature=shared

https://www.instagram.com/reel/DLfDsDBK763/?igsh=ZjFkYzMzMDQzZg==



Saturday, June 14, 2025

समय का साया



केवल तिवारी 
जमीं तलाश रहा हूं बुढ़ापे के लिए
सवाल... क्या आएगा बुढ़ापा
जहां बनाना चाहता हूं खुद के लिए
सवाल... क्या मिलेगा जहां
यहां, वहां या फिर कहीं और
चलते रहे पथ पर अब ढूंढ़ रहा हूं ठौर
क्यों हूं विकल,
कितना लंबा समय यूं ही गया निकल
कहां कुछ अपना होता है
जहां थमे, वहीं समय गुजरता है
जैसे-जैसे गुजर रहा है समय
मैं थमना नहीं चलते रहना चाहता हूं
सवाल... क्या मुझे मिलेगी राह
राह दिखा तो रहे हैं मेरे अपने
मेरी आंखों से ही तो देख रहे सपने
मैं दिवा स्वप्न तो नहीं देखता
पर सपने संजोना भी नहीं भूलता
चलने की जिजीविषा मैंने सदा अपनाई
हर मोड़ पर मुझे एक कहानी याद आई
सवाल... क्या मिलते रहेंगे किरदार
टकराते ही तो रहते हैं बार-बार
कभी समय का फेर था और कभी समझ का
कभी आंधिया-बौछारें थीं, कभी मौसम गर्मी का
कभी टूटे, कभी झंकृत हुए तार दिल के
अकेलापन मिला जब चाहा चलना मिल के
अब सांझ को करीब देख रहना चाहता हूं संग-संग
सवाल... क्या घुलेंगे रिश्तों में सतरंगी रंग
ताउम्र चलता रहा हूं उम्मीदों भरे सफर में
अब क्यों नाउम्मीदी पालूं थोड़ी बची डगर में
अब तो खुशियों की बूंदाबादी भी भिगो देती है
मन की प्रसन्नता मां की तरह हो जाती है
हम अविरल राही चढ़ते रहेंगे हर नयी सीढ़ी
तुम भी होगे, हम भी होंगे और होगी नयी पीढ़ी
सवाल... अब उठने नहीं देंगे, जाएगी नयी कहानी गढ़ी
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मां की बात
बच्चों का प्रसन्न मुख देख तेरा चेहरा खिल जाता है
परिवार के लिए खाना पकाकर तेरा पेट भर जाता है
कामकाजी हो या घर संवारने वाली, परिवार ही है तेरी जां
न जाने कितनी दुनिया छिपी है बस एक ही संबोधन है, मां
कभी मन से उठे सवाल, मां तू कैसे ऐसी है
कभी खुद आवाज आए तू भगवान जैसी है
भाव का भूखा भगवान, भावों से भरे तेरे अरमान
नस-नस भरा है परिवार का प्यार, तू है एक आसमान
कैसे कोई कुछ अल्फाज में लिख सकता है तेरी बात
मां तू एक ग्रंथ है, दुनिया है तू ही है तो पूरी अल्फाज

Sunday, June 8, 2025

गोपाल भोला जी के साथ भी निकला ऑफिशियल यादगार सफर

 केवल तिवारी

भावुकता तो लाजिमी है इस मौके पर, पर सुकून भी है पूरा

परिवार जैसे संस्थान में खेली लंबी पारी, कुछ रहा नहीं अधूरा।



ये दो पंक्तियां पिछले दिनों तब अपने आप फूट गयीं जब भोला जी की रिटायरमेंट पार्टी के बाद कुछ लिखने के लिए बैठा। पूरा नाम है गोपाल कृष्ण भोला। ट्रिब्यून संस्थान में उन्होंने करीब चार दशक की पारी खेली और मेरे साथ उनका एसोसिएशन वर्ष 2013 से है। दैनिक ट्रिब्यून डिजाइनिंग एवं पेजीनेशन सेक्शन में इंचार्ज रहे भोला से अनेक मुद्दों पर बात होती। उनसे जो सीखने लायक सबसे अहम बात है, वह है कूल रहना। गोपाल जी कूल रहते हैं। विषम परिस्थितियों में भी और सामान्य परिस्थितियों में भी। जैसे कि सूर्य के लिए कहा गया है- उदेति सविता ताम्र, ताम्र एवास्तऐति च। सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥

शनिवार, 31 मई की शाम से ही सभी से आग्रह किया गया था कि एडिशन जल्दी करना है। भोला जी ने पूरे हिंदी न्यूजरूम और अन्य साथियों को आमंत्रित किया था। प्रेस क्लब में पार्टी थी। न्यूज रूम के साथी समय पर फारिग हो गये। लगभग सवा ग्यारह बजे तक सभी पहुंच चुके थे। वहां पार्टी चल रही थी। कहीं किस्सागोई। कहीं पुरानी बातें। कुछ भविष्य की प्लानिंग। हम लोग पहुंचे तो गोपाल जी की बदौलत अपने वरिष्ठ साथियों से मिलने का मौका मिला। राजीव शर्मा जी, अनूप गुप्ता जी, रामकृष्ण भाटिया जी जैसे अनेक लोगों से मुलाकात हुई।

दो बड़े बच्चों से मुलाकात अच्छी लगी

पार्टी के दौरान ही बातों-बातों में पेजीनेशन विभाग के साथी मदन झांझड़िया जी और अवनीश जी ने बताया कि उनके बेटे भी कार्यक्रम में पहुंचे हैं। उन्होंने दोनों को बुलाया। दोनों से मुलाकात और बातचीत बहुत अच्छी लगी। उनके बारे में जानने का मौका मिला। स्वास्थ्य के प्रति उनकी जागरूकता और भविष्य की तैयारी के सिलसिले में भी बात करते हुए अच्छा लगा। बड़े हो चुके बच्चों से परिपक्वता भरी बातें करना मुझे हमेशा से अच्छा लगता है। जबसे मेरा बेटा भी कॉलेज पासआउट हुआ है, यह अच्छा लगना कुछ बढ़ गया है।

जब भावुक हो गए गोपाल भोला जी...

गोपाल भोला जी ने सपने संजोये थे कि उनकी रिटायरमेंट पार्टी में उनके पिता की शिरकत होगी। उन्हें और हमारे जैसे अन्य मित्रों को यह अच्छा भी लगेगा, लेकिन दो माह पूर्व अंकल जी एक दुर्घटना में चोटिल हो गए। तब से उनका इलाज चल रहा है। पूरी शिद्दत से गोपाल भोला जी का परिवार उनकी सेवा सुश्रुसा में लगा है। रिटायरमेंट पार्टी में किसी ने हालचाल पूछ लिया। इसके साथ ही बातों-बातों में बेटे गौरव और बहू का भी जिक्र हुआ। वे दोनों न्यूजीलैंड से नहीं आ पाए। गोपाल जी के छोटा भाई भी दो माह पहले ही पिताजी का हाल लेने आए थे, इसलिए इतनी जल्दी उनका आना भी संभव नहीं हो पाया। मित्रों, रिश्तेदारों से भरी इस महफिल में भावनाओं का कुछ ज्वार-भाटा फूटा तो सभी भावुक हो गए।

उन दो पंक्तियों की मानिंद जिसके शब्द हैं-

शिकायत करने पहुंचे थे इबादत सी हो गई।

भूलने की ठानी थी पर तेरी आदत सी हो गई।

कार्यक्रम शानदार रहा। उससे दो-तीन पहले भी गोपाल भोला जी ने प्रेस क्लब में कुछ चुनींदा लोगों के साथ गेट टू गेदर किया। मैं उसमें शामिल नहीं हो पाया था। भोला जी को जीवन पथ पर खूब खुशियां मिलें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ। मिलते रहेंगे। कुछ फोटो और वीडियो साझा कर रहा हूं।








Sunday, May 25, 2025

कड़ी मेहनत के सतरंगी फल... हे री सखी मंगल गाओ... कुक्कू बना इंजीनियर

केवल तिवारी

बेटा आप आये, आईआईटीएन बनकर, गर्व से सिर ऊंचा हो गया।

जीवन अब आपका सुगम रहे, यही दुआ दिल से निकलती है।

कड़ी मेहनत के सतरंगी फल, आपने दिखाया अपना हुनर।

हर खुशियां मिले आपको, रोशन हो हर दीवार ओ दर।


पिछले दिनों ये चार पंक्तियां उस वक्त लिखीं, जब बेटे कार्तिक यानी कुक्कू को उसके कैंपस (आईआईटी, रोपड़) से लेने के लिए गया। चार-पांच दिन पहले से ही मेरे और कुक्कू की मम्मी भावना के मन में 'कुछ-कुछ हो रहा था।' ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे। खाने में यह बना देंगे। इतने बजे चलेंगे। ये, वो... वगैरह-वगैरह सोचते-सोचते रामचरित मानस की कुछ पंक्तियां मन में अपनेआप आ रही थीं। किसी भी समय। भावना ने एक-दो बार कहा, जूठे मुंह तो मत कहो। फिर खुद को संयत किया। कल्पना कर रहा था कि तुलसीदास ने उस वक्त कितना अच्छा लिखा जब प्रसंग आता है कि हनुमान जी ने अंगूठी को उनके (सीताजी के) सामने गिराई। उसमें लिखा गया है, 'चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदय अकुलानी' उन्होंने अंगूठी को पहचान तो लिया, लेकिन वह खुशी और दुख से भर गयी हैं। आखिर यह अंगूठी यहां आ कैसे गयी। (जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई )

पूरी चौपाई इस तरह से है, 'तब देखी मुद्रिका मनोहर, राम नाम अंकित अति सुंदर। चकित चितव मुदरी पहचानी, हरष-विषाद हृदय अकुलानी।'

आज हम लोगों का भी हाल ऐसा ही था। विश्वास सा नहीं हो रहा था। लग रहा था कल की ही तो बात है, जब एजुकेशन लोन के लिए दो-तीन बैंकों में गया। कुक्कू के बीच वाले मामा शेखर जोशी जी घर आकर कुछ पैसे दे गये। फिर पता चला कि कुक्कू को एसबीआई से खुद ही ऑफर आया है और ब्याज भी चार साल का माफ होगा। कोरोना महामारी चरम पर थी। हॉस्टल जाने के सपने संजोये कुक्कू घर में ही अपने ट्रॉली बैग को लेकर घूमता और हंसता। हम लोगों के मन में भी कई चिंताएं थीं। जिसे हमने आजतक किसी दुकान तक में नहीं भेजा, वह हॉस्टल में कैसे एडजस्ट होगा। हालांकि यह अलग बात है कि दसवीं के बाद सरकारी स्कूल में दाखिला लेने से पहले जेईई परीक्षा फॉर्म भरने और बाद में एफेडेविट से लेकर अन्य फॉर्म भरने में उसी ने राह दिखाई। वह बताता और मैं साथ में चलकर औपचारिकताएं पूरी करता। आखिरकार वह दिन आ ही गया। उसने जेईई एडवांस क्लीयर किया। इसके बाद कभी किसी की सलाह कि लो ट्रेड में आईआईटी दिल्ली, मुंबई, रुड़की भेजो। कुछ ने सलाह दी कि कंप्यूटर साइंस ही दिलाओ चाहे जहां मिले। कुक्कू ने केवीपाई (किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना) परीक्षा भी पास की थी। इसका लाभ उसे कुछ आईआईटी में मिल रहा था। स्कॉलरशिप का भी लाभ मिल रहा था। लेकिन हमने फाइनल फैसला कुक्कू पर ही छोड़ दिया और वह आईआईटी रोपड़ का विद्यार्थी बन गया। फॅार्म भरते वक्त ईडब्ल्यूएस नहीं दिखा पाए जाहिर है उसका फायदा भी नहीं उठा पाए। खैर... कहानी और कहानियां बहुत लंबी हैं, इस वक्त कोशिश, सिर्फ उस वक्त की बात करने की।

कुक्कू को कैंपस से लाने की तैयारी में हम लोग थे और दरअसल, हम दोनों, ज्यादातर बातें फ्लैशबैक में कर रहे थे। कुक्कू की जब दसवीं में फेयरवेल पार्टी थी तो उसका दोस्तों के साथ घूमने जाने का प्रोग्राम था। मैंने मना कर दिया और उसे लेकर पहले फरीदाबाद फिर वृंदावन गया। कुक्कू कुछ देर मुझसे नाराज रहा। कभी भावना ने उसे पचास रुपये दिए कोचिंग आने-जाने के लिए, तो वह 30 रुपये बचा लाया। इसके लिए कुछ देर पैदल चल देता। ऐसी ही अनेक बातें। इन बातों को सुनकर छोटा बेटा धवल बहुत रस लेता। वह हम लोगों की बातों में अलग तरह का रस लेता और मजाक भी बनाता। खैर सबसे पहले यही आइडिया आया कि जिस दिन कुक्कू को लाएंगे, उसी शाम सुंदरकांड का पाठ करेंगे। 'प्रभु की कृपा भयउ सब काजू, जन्म हमार सुफल भा आजू।' बेशक कुक्कू आईआईटीएन बनकर लौट रहा था, लेकिन पिछले कुछ समय से उसके स्वास्थ्य को लेकर हम चिंतित रहे। कई डॉक्टरों को दिखाया। ऑपरेशन की ही सलाह मिली। खैर...।

सोमवार 19 मई, 2025 की वह तारीख आ ही गयी। मैं, भावना, कुक्कू के मामा भास्कर (राजू) एवं मामी पिंकी सुबह करीब आठ बजे घर से चल दिए। कई दिनों से कुक्कू को ताकीद की जा रही थी कि सामान पैक करते रहना। नो ड्यूज सर्टिफिकेट ले लेना। जो भी औपचारिकताएं हों, उसे पूरी कर लेना। पूरी तरह आश्वस्त होकर हम लोग करीब साढ़े नौ बजे आईआईटी रोपड़ पहुंच गए। उस दिन पहली बार हुआ कि गेट पर सुरक्षाकर्मियों ने कहा, सर बेटे से बात करा दो। मैंने इसका कारण पूछा तो बोला, आपने ही कहा न कि आज फाइनली लेने आ गए हैं, इसलिए पूछताछ जरूरी है। कुक्कू की छोटी मामी आज पहली बार कैंपस में आई थी। इसलिए हमने कारों में सामान रखकर पहले कैंपस घूमने की योजना बनाई। कुक्कू हमें चाय पिलाने ले गया। फिर अलग-अलग वैज्ञानिकों के नाम पर बने भवन दिखाए। मेस दिखाया, स्पोर्ट्स कैंपस और अन्य जगह भी हम लोग गये। इस दौरान कुछ फोटो और वीडियो भी तैयार होते रहे।

कैंपस में दोस्तों का मिलना और वह भवुक पल

कुक्कू का सामान हॉस्टल से बाहर लाने में उसके दो दोस्तों गोपाल और शशांक ने भी मदद की। उन्होंने हमें प्रणाम किया। फिर सामान रखवाया। जब वे जाने लगे तो मैंने कुछ फोटो लेने की गुजारिश की। उन लोगों ने फोटो खींचे और खिंचवाए। जब विदा होने की बारी आई तो कुक्कू बोला, 'पापा ये गोपाल है जिसे आपने रात को तंग किया था और ये शशांक है।' मैंने कहा ओह शशांक को भी तो मैं गाहे-ब-गाहे फोन कर दिया करता था। सॉरी बच्चो। दोनों एक साथ बोले, कोई बात नहीं अंकल। असल में एक बार कुक्कू दोस्तों के साथ मनाली, रोहतांग घूमने गया। शाम के समय इसका फोन आया कि ट्रैकिंग के दौरान मैं थोड़ा फिसल गया था... इसके बाद भी वह कुछ बोला, लेकिन नेटवर्क इश्यू के कारण फोन डिस कनेक्ट हो गया। मैं परेशान हो गया। रात में मैंने कई बार कुक्कू को फोन लगाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं हो पाई। मैंने उसके कई दोस्तों और कुछ सीनियर्स को फोनलगा दिया। सुबह तक बात तो नहीं हो पाई, लेकिन सबने आश्वस्त किया कि सभी साथ में हैं। सुबह कुक्कू का फोन आ गया। बोला, पापा आपने तो पूरी दुनिया में हल्ला मचा दिया। मैंने कहा तो था कि बैटरी खत्म है। हम लोग टेंट में रुके हैं। परेशान मत होना। मैंने ज्यादा सफाई नहीं दी। उसके बाद बात आई-गयी हो गयी। आज कुक्कू ने उस प्रसंग की याद दिलाई। हम सब लोग खूब हंसे। इस बात के बाद जब गोपाल और शशांक विदा होने लगे तो बोले, 'कार्तिक अब देखना रोएगा। कल तब सबको विदा कर रहा था, आज खुद विदा हो रहा है।' कुक्कू उनकी बात पर अपनी चिर परिचित अंदाज में मुस्कुरा दिया। हम कार में बैठे, उसके दोनों मित्र दूर तक वीडियो बनाते रहे। मैं अंदर ही अंदर अपने भावनाओं पर नियंत्रण की कोशिश करता रहा। भावना, पिंकी बैठे थे राजू की कार में, कुक्कू मेरे साथ था।

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अपनी तरह से हमने किया स्वागत, स्वस्थ रहो, सुखी रहो बच्चा

घर पहुंचकर हमने कुक्कू का स्वागत किया। मैंने कुछ सजावट की थी। एक-दो जगह लिखा था, 'Welcome Kartik' एक जगह मैंने लिखा, 'Welcome IITEAN Kartik' कुक्कू इस स्वागत को देखकर भावुक हुआ, खुश भी, साथ ही बोला कि आपने IITEAN गलत लिखा है, इसकी जगह IITIAN होना चाहिए। मैंने गलती स्वीकारी। उसकी मामी बोली, भावना को समझो। मैंने कहा, यह तो समझ ही रहा है, 24 साल से मैं भी समझने की कोशिश कर रहा हूं। पत्नी का नाम भावना आने पर सब हंस पड़े। राजू-पिंकी अपने भांजे के लिए खूबसूरत गिफ्ट लेकर आये थे। कुछ किताबें, एक लकड़ी के फ्रेम में बना फोटो। भावना फ्रीज से केक लेकर आ गयी। कुक्कू ने केक काटा। उसी समय मामी ने कुछ अच्छे गाने फोन पर बजाये। यहां बता दूं कि कुछ दिन से मैं एक सूफी गाना गुनगुना रहा था, जिसके बोले हैं, 'हे री सखी मंगल गाओ री, धरती अंबर सजाओ री, आज मेरे पिया घर आएंगे।' खैर इधर केके बंटता रहा, उधर मैं इस दौरान परिवार के सभी लोगों को कुछ फोटो-वीडियो भेजकर मैंने 'लिखा इंजीनियर कुक्कू घर आ गया।' दोपहर बाद मामा-मामी का बेटा भव्य और मेरा छोटा बेटा धवल भी स्कूल से आ गए। कुछ हंसी-मजाक चली। इसके बाद शीला बुआ, प्रेमा बुआ से कुक्कू की बात हुई। दोनों बुआ बेहद भावुक हैं। रोने लग गयीं। खुशी के आंसू। 'हरष विषाद हृदय अकुलानी।' परिवार के अन्य लोगों के बधाई संदेश आए। भागवान कुक्कू को प्रसन्न रखें, स्वस्थ रखें। यही दुआ है। अच्छा इंसान बने रहना बेटा। सभी परिवारीजनों से प्रेम अवश्य बनाए रखना। मित्र भले ही कम बनाना, लेकिन सच्चे मित्र बनना और बनाना। उपदेश तो हम आगे भी देते रहेंगे। कुक्कू को अब अगस्त में नौकरी ज्वाइन करनी है। बेंगलुरू यानी बैंगलोर जाएगा। उस शाम को हमने सुंदरकांड का पाठ किया। 'प्रभु की कृपा भयउ सब काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।' गरल सुधा रिपु करहिं मिताई, गोपद सिंधु अनल सितलाई।

रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।

लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई।


जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।


इन भावुक और गौरवान्वित पलों की कुछ तस्वीरें और वीडियो साझा कर रहा हूं। जय हो।