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Tuesday, January 14, 2025

निर्मल हैं, नरेंद्र हैं... बाल साहित्यकार की साधना में लगी एक सम्मानित मुहर

केवल तिवारी

आज बात एक ऐसे शख्स की जो निर्मल हैं और नरेंद्र हैं। संयोग देखिए कि जिस वक्त मैं यह ब्लॉग लिख रहा हूं, उस वक्त युवा दिवस की खबरों और लेखों की चर्चा हो रही है। युवा दिवस यानी स्वामी विवेकानंद जी और उनकी शिक्षाओं को समर्पित। स्वामी विवेकानंद यानी नरेंद्र। सीधे जुड़ गयी बात। विवेकानंद जी की शिक्षा के सागर में से कुछ बूंदें भी सहेज पाए तो यही बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। निर्मल जी यही तो बताते हैं कि लक्ष्य साधे रखिए। ऊर्जावान बने रहिए। किसी का बुरा करने की सोचिए भी मत। बाकी कुछ नहीं कर पाएं तो इतना ही बहुत है। आज उनकी बात इसलिए कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने वरिष्ठ पत्रकार, साहित्कार एवं फीचर संपादक नरेंद्र निर्मल को सम्मानित करने का ऐलान किया है। 



सम्मान सूची संबंधी एक खबर मैंने तैयार की थी, जिसका विवरण इसी ब्लॉग में आगे जाकर मिल जाएगा। अभी निर्मल जी की बात। मेरे लिए बड़े भाई जैसे और पथ प्रदर्शक जैसे। बच्चों को लेकर कोई बात करनी हो या फिर दफ्तर की कार्यशैली पर। चूंकि हमारा पेशा समान है। कई तरह की बातें होती हैं। कई बारीकियों को समझना होता है और कई बातों को इग्नोर करना होता है। निर्मल जी से जब भी बात होती है वह 'चुपचाप' कुछ कह देते हैं। असल में कई बार उन्होंने इस शब्द का इस्तेमाल किया है। मुझसे कहते हैं कि चुपचाप अपना काम करते रहना चाहिए। विभिन्न अखबारों में फीचर के कलेवर और फ्लेवर बदलते रहने वाले नरेंद्र निर्मल भाई साहब सलाह पर भी गौर करते हैं, अपना तर्क भी रहते हैं। परिवार के प्रति समर्पित व्यक्ति का काम के प्रति भी उतना ही समर्पण। हिंदी संस्थान से सम्मानित होने की सूचना को उनके जानकार और वरिष्ठ पत्रकार संजय जी ने फेसबुक पर साझा किया तो कमेंट्स की बौछार लग गयी। उन्होंने कुछ खास कमेंट्स का जिक्र करते हुए कहा कि इन महानुभावों से बहुत कुछ सीखा है। एक स्क्रीन शॉट यहां साझा करूंगा। 





असल में निर्मल जी ने जिनसे सीखा या जिनसे प्रेरित हुए, उनका निस्संकोच जिक्र करते हैं। साथ ही बहुत बेबाकी से कहते हैं कि अब भी सीखने में लगा हूं। उनके आइडियाज दिल को छूने वाले होते हैं। जो काम उन्हें चुपचाप करना होता है, करते हैं। जिसको लेकर चर्चा करनी होती है, करते हैं। यानी सहज रहते हैं। जैसे स्वयं हैं, वैसे ही संस्कार बच्चों में हैं। इनका भाग्य अच्छा था कि इन्हें पत्नी भी उतनी ही अच्छी मिलीं। सुधा भाभी ने घर के अभिभावक की तरह हमें समय-समय पर अच्छी सलाह दी हैं। बच्चों को खिलाया है, समझाया है। एक बार फिर निर्मल परिवार को इस सम्मान की हार्दिक बधाई। उनके साथ ही उन सभी सम्मानित साहित्यकारों को दिल की गहराई से बधाई। सभी अपने-अपने क्षेत्र के महारथी हैं। अब नीचे साझा कर रहा हूं, वह खबर जो इन सबके सम्मानित होने की सूचना पर मैंने बनाई थी।
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वरिष्ठ पत्रकार नरेंद्र निर्मल को सम्मानित करेगा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
वरिष्ठ पत्रकार नरेंद्र निर्मल को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान सम्मानित करेगा। निर्मल के साथ ही नौ अन्य साहित्यकारों को भी सम्मानित किया जाएगा। इस संबंध में जारी बयान के मुताबिक नरेंद्र निर्मल को लल्ली प्रसाद पांडेय बाल साहित्य पत्रकारिता सम्मान के लिए चयनित किया गया है। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने बाल साहित्य संवर्धन योजना के तहत राज्य के नौ साहित्यकारों को बाल साहित्य सम्मान 2023 देने की घोषणा की है। संस्थान की निदेशक डॉ. अमिता दुबे ने बताया कि प्रत्येक साहित्यकार को 51 हजार की धनराशि, अंगवस्त्र और प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित किया जाएगा। इनके सम्मान का निर्णय पिछले दिनों समिति की बैठक में लिया गया। जिन अन्य साहित्यकारों को सम्मान के लिए चुना गया है उनका विवरण इस प्रकार है- लखनऊ की डॉ. करुणा पांडेय को सुभद्रा कुमारी चौहान महिला बाल साहित्य सम्मान, सहारनपुर के डॉ. आरपी सारस्वत को सोहनलाल द्विवेदी बाल कविता सम्मान, शाहजहांपुर के डॉ. मोहम्मद अरशद खान को अमृत लाल नागर बाल कथा सम्मान, अलीगढ़ के दिलीप शर्मा को शिक्षार्थी बाल चित्रकला सम्मान, गौतमबुद्ध नगर के बलराम अग्रवाल को डॉ. रामकुमार वर्मा बाल नाटक सम्मान, मथुरा के देवी प्रसाद गौड़ को कृष्ण विनायक फड़के बाल साहित्य समीक्षा सम्मान, लखनऊ के डॉ. दीपक कोहली को जगपति चतुर्वेदी बाल विज्ञान लेखन सम्मान, प्रतापगढ़ के अनिल कुमार ‘निलय’को उमाकांत मालवीय युवा बाल साहित्य सम्मान। बता दें कि उत्तर प्रदेश के नोएडा निवासी नरेंद्र निर्मल पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र प्रतिष्ठित नाम है। पिछले 4 दशक से वह विभिन्न प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के फीचर विभाग में वरिष्ठ पदों पर कार्यरत रहे। उन्होंने बाल साहित्य को नया कलेवर और फ्लेवर दिया है।

Monday, January 13, 2025

'घर' की एक और यात्रा, हालचाल और वार्ता

केवल तिवारी








सुखद संयोग है कि दो-तीन महीने के अंदर ही एक बार फिर अपनी जन्मस्थली जाने का मौका मिला। उत्तराखंड के रानीखेत के पास स्थित अपने गांव खत्याड़ी (डढूली)। असल में बच्चों की छुट्टी थी, बड़े बेटे की बेंगलुरू (Bengluru, Microsoft ) में अगस्त में जॉइनिंग से पहले यही मौका सही था और छोटा धवल भी अब दसवीं में चला जाएगा। तमाम कार्यक्रम बनाते-बनाते यही तय हुआ कि घर चलना है। इसी बीच, गांव की धूनी बंबईनाथ स्वामी मंदिर में भंडारा होने की सूचना व्हट्सएप ग्रुप के जरिये मिली। ईश्वर की कृपा ही थी कि कार्यक्रम बन गया। काठगोदाम बच्चों के बड़े मामा, उनकी बेटी, बीच वाले मामा और मामी को भी साथ ले लिया। यात्रा छोटी, लेकिन यादगार रही और सबसे अहम रहा अपने लोगों से मुलाकात करना। कुछ मिले, कुछ की बातें हुईं और कुछ के बारे में जानकारी ली। लेकिन इतनी सी बातों से मन कहां भरता है। इसीलिए शायद किसी शायर ने कहा है-
ये मुलाक़ात मुलाक़ात नहीं होती है, बात होती है मगर बात नहीं होती है।
खैर... जो भी हो। यह सत्य है कि यात्रा हुई। शानदार नजारे देखे। ऐसे नजारे जिन्हें बचपन में भी देखा था। तब वह रोजमर्रा के थे, आज कभी-कभी होते हैं। सिलसिलेवार इस यात्रा का जिक्र करता हूं।






हल्द्वानी से बिनसर महादेव और ताड़ीखेत विश्राम






कार्यक्रम बनने के बाद जाने के तमाम विकल्पों पर विचार किया गया। चंडीगढ़ से सीधी ट्रेन सेवा है नहीं। कभी-कबार वाली कोई ट्रेन है भी तो दिन के हिसाब से हमें सूट नहीं करती। फिर बस के विकल्प पर विचार किया गया। अंतत: हमने तय किया कि हल्द्वानी तक अपनी कार से जाया जाये, वहां से कैब कर लेंगे। बच्चों के मामा नंदाबल्लभ जी के माध्यम से कैब बुक हो गयी। तीन जनवरी की सुबह हम लोग चले। पहले कोटाबाग वाले यानी मेरे साढू भाई सुरेश पांडे जी के निर्माणाधीन स्टे होम (बैलपड़ाव) पहुंचे। कुछ देर वहां रुककर हम शेखर जी के यहां पहुंचे। वहां उनकी पत्नी लवली जी एवं पुत्र सिद्धांत जोशी ने गर्मजोशी से स्वागत किया। कई बातें हुईं और अगले दिन जल्दी से जल्दी चलने का कार्यक्रम बना। अगली सुबह करीब 8 बजे हम लोग काठगोदाम पहुंचे और वहां से सभी लोग कैब से सीधे बिनसर महादेव पहुंचे। लंबे समय बाद इस मंदिर में जाना हुआ। शांत सुरम्य। सचमुच मंदिर ऐसे ही होने चाहिए जहां लूट न हो, जहां कोई डिमांड न हो। आध्यात्मिक माहौल। कुछ देर मंदिर और फिर मंदिर प्रांगण में हम सब लोग रहे। संबंधित वीडियो यहां साझा कर रहा हूं। इसके बाद हम पहुंच गए ताड़ीखेत। ताड़ीखेत में व्यंजन होम स्टे में हमने ठहरने के लिए पहले से ही कह दिया था। असल में करीब तीन माह पहले जब आया था तो यहीं ठहरे थे। अच्छा लगा। इस होम स्टे में जहां भोजन एकदम घर जैसा है वहीं आवास और रहने का माहौल भी वैसा ही। संयोग देखिए इसी दिन यानी चार जनवरी को इसके ऑनर के भतीजे नवीन जोशी का जन्मदिन था। शाम को वहां बच्चे और परिजन गीत-संगीत के आयोजन में व्यस्त थे और उन्होंने हम सबको भी शामिल कर लिया। सबके साथ हंसी-मजाक और गीत संगीत कार्यक्रम में बहुत अच्छा लगा। इससे पहले हम लोग ताड़ीखेत बाजार में घूमने गए। वहां एक बुजुर्ग मिले जो मेरे ससुर और पिताजी दोनों को जानते थे। उन्होंने कई यादें साझा कीं। संबंधित वीडियो भी यहां साझा कर रहा हूं। मुझे संभवत: पहले बुजुर्ग मिले होंगे जिन्होंने कहा कि वह मेरे पिताजी यानी स्व. दामोदर तिवारी को भी जानते हैं। इसके बाद हम लोग व्यंजन होम स्टे पहुंचे, भोजन के बाद अगले दिन का कार्यक्रम बनाकर सो गये।
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घर की राह, बड़ों का स्नेह और ईश्वर का आशीर्वाद




पांच जनवरी की सुबह करीब नौ बजे हम लोग ताड़ीखेत से घर के लिए निकले। रास्ते में कुछ लोकेशन देखते हुए मैंने अपने संबंधियों को वह जमीन भी दिखाई जिसकी आजकल चर्चा है। उसका नाम है सिवाड़। वहां से हिमालय व्यू एकदम क्लीयर है। रास्ते में कुछ निर्माणों को भी देखा। सरना में कुंदन मिले। कुछ देर बात करने के बाद हम लोग पैदल गांव की ओर चल पड़े। रास्ते में सबसे पहले तलबाखई भोपका की मांताजी मिलीं। उम्र करीब सौ वर्ष। उन्होंने बहुत भावुक किया। वह बोलीं, 'तुमर ईजक ब्या लै मैंल देख राखो, मकण भगवान कदिन उठाल।' यानी तुम्हारी माताजी का विवाह होते मैंने देखा है। मुझे भगवान कब उठाएगा। मैंने कहा, चाची चिंता मत करो, जब बारी आएगी, पता भी नहीं चलेगा। असल में यह अच्छी बात है कि हमारे गांव सभी को रिश्तों से बुलाते हैं। प्रसंगवश बता दूं कि पांच जनवरी को हम अपने गांव पहुंचे और पांच जनवरी को ही हमारी माताजी की 17वीं पुण्यतिथि थी। पहले मुझे इसका भान नहीं रहा क्योंकि कुछ दिन पहले ही हिंदी कैलेंडर में तिथि के हिसाब से उनका श्राद्ध हुआ था। बातों-बातों में शीला दीदी ने याद दिलाई तो लगा ईजा के आशीर्वाद से आज गांव आना तय हुआ। इसके बाद हम लोग पहले अपने घर पहुंचे। पनदा के घर में भाभी जी मिलीं। बहुत अपनेपन से उनसे मुलाकात हुई फिर बसंत दा और भाभी से मुलाकात हुई। फिर कैलाश मिला और उसके बाद प्रयागदा के यहां चायपानी हुई। फिर हम ताऊजी के पोते यानी अपने भतीजे बिपिन के आंगन में गये। बिपिन की यादों में आंखें नम हो गयीं। कोरोना काल में वह इस नश्वर संसार से विदा ले गया। अपने घर के आंगन में दीया बत्ती करने के बाद हम ग्वेल देवता के मंदिर गये। उसके बाद फिर से नीचे सरना आए और गाड़ी में बैठकर डढूली गांव पहुंचे। वहां ललदा मिले। उन्होंने बहुत खुशी जताई। फिर पैदल चल पड़े बंबईनाथ स्वामी मंदिर की ओर यानी धूनी की ओर। रास्ते में अनेक लोग मिले। दोभण सनुदा ने पहचान लिया। नाम से मुझे पुकारा तो बहुत अच्छा लगा। मंदिर में चिंतामणि चाचा, बबलू भाई, मधीदा और भाभीजी, शिवदा सर (शिवदत्त तिवारी), मीना बुआ, उर्वीदा, उनके बेटे मुन्ना, महेश दा, प्रकाश दा और बाद में पप्पूदा यानी दिनेशदा भी आ गए। इसी दौरान रिश्ते में भतीजा और स्कूल का दोस्त मदन मिला। उसीने हमारी पूजा करवाई। वह अक्सर गांव के बारे में सूचना देता रहता है। होली आदि त्योहारों के दौरान वीडियो कॉल करवाता है। उसके बड़े भाई नवीन, भाई एवं व्यास जी ललित तिवारी, राजू आदि अनेक लोगों से मुलाकात हुई। इस दौरान पूजा होती रही और प्रयागदा मेरे लिए भी धोती लेकर आए थे। मैं भी धोती पहनकर चौखंडी की परिक्रमा करने लगा। परंपरागत पूजा हुई और इसी दौरान आदेश हुआ कि सावन के महीने में फिर से यहां पहुंचूं। ईश्वर का हुक्म होगा तो पूरी कोशिश होगी जाने की। अनेक लोगों ने आते रहने की ताकीद की। इस मुलाकात पर दो-दो पंक्तियां दोहराऊंगा-
आँख भर आई किसी से जो मुलाक़ात हुई, ख़ुश्क मौसम था मगर टूट के बरसात हुई।
काफ़ी नहीं ख़ुतूत किसी बात के लिए, तशरीफ़ लाइएगा मुलाक़ात के लिए।
दिन भी है रात भी है सुब्ह भी है शाम भी है, इतने वक़्तों में कोई वक़्त-ए-मुलाक़ात भी है।
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हल्द्वानी वापसी, भानजियों संग समागम और कुछ भावुक यादें





गांव के यादगार सफर के बाद हम लोग हल्द्वानी वापस आ गये। यहां सबसे पहले साढू भाई सुरेश पांडे जी के यहां गये। उनसे कई बातें हुईं। अगले दिन कार्यक्रम बना भानजियों के यहां जाने का। यहां मेरी बड़ी भानजी लता, उससे छोटी रुचि और फिर रेनू रहते हैं। रुचि के पति दीपेश ने लंच का अपने यहां फिक्स कर दिया। फिर रेनू के पति कुलदीप पंत जी ने अपना पता बताया। उनकी बिटिया काव्या से बातचीत करना अच्छा लगा। उनकी माताजी से कई बातें साझा हुईं। वह बहुत जीवट महिला हैं। यहां प्रेमा दीदी का भी आने का कार्यक्रम था, लेकिन कुछ व्यस्तताओं के कारण वह नहीं आ सकी। उम्मीद है कि जल्दी ही मुलाकात होगी। इस मुलाकात के बाद कुलदीप जी ने हमें लता के यहां छोड़ दिया। परिवार में नन्हे कान्हा यानी लता के पोते को पहली बार देखा। छोटी भानजी बन्ना के बेटे अविरल से मिलकर भी बहुत अच्छा लगा। नन्हे कान्हा के पिता यानी मयंक और मम्मी से भी मुलाकात हुई। संक्षिप्त भेंट के बाद हम चले आए भानजी रुचि के यहां। यहां रुचि का बड़ा ऋषि यानी रिषु हमारा बेसब्री से इंतजार कर रहा था। उसका भाई अपनी नटखट शरारतों में व्यस्त था। रिषु हम लोगों से लगातार रुकने का आग्रह करता रहा। हम लोगों ने लंच किया। फिर दीपेश हमें माताजी से मिलाने ले गये। माताजी अस्वस्थ हैं और कुछ ही समय पहले दीपेश के पिता जी यानी हम सबके दद्दू इस नश्वर संसार से विदा ले गये। वह बहुत मिलनसार और स्पष्टवादी थे। दीपेश के बड़े भाई सुबोध, पत्नी से भी मुलाकात हुई। कुछ देर पुरानी बातों को याद किया। कभी भावुक तो कभी रोचक पलों का आदान-प्रदान हुआ। उस शाम भी पांडे जी के यहां पहुंचे। अगली सुबह जल्दी उठकर हल्द्वानी कालूसाई मंदिर फिर काठगोदाम भूमि देवता की पूजा-अर्चना के बाद वहीं रहना हुआ। अगली सुबह हम सभी लोग साथ में शेखरदा चल पड़े चंडीगढ़। यहां आकर शुरू हो गयी रुटीन लाइफ। यूं ही चलती रहे जिंदगी। सभी के स्वास्थ्य की कामना। अब फोन पर परिजनों के साथ इस यात्रा के बाबत वार्तालाप चल रही है। - जय हो।
और इस ब्लॉग के अंत में कुछ वीडियो