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Tuesday, December 7, 2021

... जरा फासला बरकरार रखिए

केवल तिवारी

मशहूर शायद बशीर बद्र साहब ने बहुत पहले लिखा था-
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।

शहर तो वही है, मिजाज नया है। कोरोना के बाद का मिजाज। अभी बाद भी कहां आया। तरस गए हैं पोस्ट कोविड पीरियड सुनने के लिए। लग रहा था कि भारी तबाही मचाने के बाद अब तो सब यही कहेंगे चलो मुक्ति मिली कोरोना चला गया। लेकिन कोरोना गया नहीं, नित नये रूप धरकर मानव सभ्यता या असभ्यता को डरा रहा है।

आदत ऐसी बनी कि सेल्फी भी मास्क पहनकर ली

अब बात यानी फासला पर। फासला यानी डिस्टेंसिंग। डिस्टेंसिंग शब्द सुनते-सुनते अब तो कान पक गए। जब से कोरोना आया है दूरी बनाये रखिए, हाथ न मिलाइये, नजदीकी ठीक नहीं जैसे कई शब्द या वाक्यांश हम आएदिन सुनते चले आ रहे हैं। जितना शारीरिक रूप से दूरी बनाए जाने पर बल दिया जा रहा था, उतना ही अनेक लोग तो दिली दूरी भी बनाए बैठे हैं। संवादहीनता है। साथ ही इस रौद्ररूप में संवेदनशून्यता भी दिखी। ऐसा नहीं कि तस्वीर एकतरफा थी, इसका दूसरा पहलू भी था। मदद को बढ़े हाथों ने मानवीय संवेदनाओं को जिलाए रखा।
थोड़ी सी उम्मीद जगी है
कोरोना महामारी के रौद्र रूप के बाद अब कुछ नया और ऊर्जावान होता दिख रहा है। बॉलीवुड उत्साहित है। टीवी शोज में क्रिएटिविटी दिख रही है। स्कूल लगभग खुल गए हैं। सरकारी और निजी दफ्तरों में आवाजाही सामान्य हो गयी है। ट्रेनें भी फुल चलने लगी हैं। बेशक अच्छा-अच्छा सा दिख रहा है, लेकिन यह नये दौर का जमाना है, इसलिए फासला जरूरी है। विशेषज्ञों कहते हैं कि भीड़ से अब भी बचना है। इसी बचना है की ताकीद का ही परिणाम था कि पिछले दिनों एक जरूरी कार्यक्रम में दिल्ली जाना था, लेकिन तमाम किंतु-परंतु के बीच आखिरकार नहीं जाना ही तय किया। ओमिक्रोन के रूप में नए वेरिएंट से डर लग रही है। अब अगर वही रौद्र रूप रहा तो स्थिति से पहले से ज्यादा बिगड़ेगी क्योंकि भूकंप का एक झटका तो सह लिया जाता है, लेकिन वैसे ही या उससे भी भयावह झटके लगने लग जाएं तो संभलना मुश्किल हो जाता है।

स्कूलों का आलम देख खुश तो हुए, लेकिन...



चित्र साभार कार्तिक


पिछले दिनों छोटे बेटे के स्कूल से नोटिस आया कि बच्चे को स्कूल भेजें। बसवाले से बात की तो वह भी राजी हुआ। राजी होना ही था क्योंकि दो साल से उसकी बसें बंद थीं। शुरू के कुछ दिनों में तो बच्चे को ले जाना और लाना खुद ही करना पड़ा, लेकिन 29 नवंबर से बस नियमित रूप से आने लगी। जब बच्चे को खुद ले जाना हो रहा था तो लगभग दो साल बाद ऐसा खुशनुमा माहौल देखकर मन प्रसन्न हो रहा था। बच्चे आपस में मिल रहे थे। हंसबोल रहे थे। किसी ने मास्क लगाया था किसी ने कान में टांग तो रखा था, लेकिन बस औपचारिकता निभाने की तरह। जो भी ऐसी ही तस्वीर बनी रहे। नए साल से हालात सामान्य हो जाएं, यही दुआ है।

एक सवाल अनुत्तरित
सब पूछते हैं कि बच्चों में आखिर इतनी मजबूती का क्या सबूत है। बड़ों को तो टीक लग गए फिर भी कई कॉलेज अब भी नहीं खुले। आईआईटी, आईआईएम एवं नीट जैसी पढ़ाई अभी बच्चे घर से ही कर रहे हैं। बच्चों को न तो वक्सीन लगी और न ही बच्चे कोविड प्रोटोकाल का वैसा पालन कर सकते हैं जैसा बड़े, ऐसे में उन्हें स्कूल बुला लेना क्या समझदारी भरा कदम है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पिछले दिनों दिल्ली में प्रदूषण मसले पर सुनवाई करते हुए टिप्पणी की थी जब बड़ों के लिए वर्क फ्रॉम होम है तो बच्चों को स्कूल क्यों बुलाया जा रहा है।

जरा फासले से ही मिलिए जनाब
सारी बातों का निचोड़ यही है कि फिलहाल फासले से मिलने की व्यवस्था को बरकरार रखिए। हाथ मिलाने की जरूरत नहीं। नमस्ते या सलाम ही कर लीजिए। मास्क पहनना बहुत जरूरी है। और अगर वैक्सीन नहीं लगवाई है तो इसमें देरी न करें। एक-एक व्यक्ति जब सुरक्षा कवच से घिरेगा तभी कोराना भागेगा।

1 comment:

kewal tiwari केवल तिवारी said...

आप का जलवा बरकरार है केवल जी, बशीर बद्र ने शेर तो ना जाने किस संदर्भ में लिखा होगा पर कॅरोना काल में ये सही बैठ रहा है,हमेशा की तरह बहुत बढ़िया लिखा है आपने

हरेश जी का कमेंट।